बिहार सरकार के श्रम संसाधन विभाग ने एक अधिसूचना जारी करते हुए श्रम अधिनियम को “सुधार” के नाम पर “कमजोर” करने की प्रक्रिया तीव्र कर दी है. यह प्रक्रिया आरंभ ही नहीं हुई है, बल्कि कोरोना के नाम पर 2014 के बाद श्रम सुधारों के नाम पर श्रमिक को नुकसान पहुंचाने वाली प्रक्रिया तीव्र कर दी गई है.
विभाग द्वारा जारी अधिसूचना में बताया गया है कि ‘चूँकि वर्त्तमान में कोविड-19 वायरस महामारी के प्रकोप ने बिहार राज्य में औधोगिक क्रियाकलापों एवं आर्थिक गतिविधियों की गति को कम किया है’. इसलिए औधोगिक क्रियाकलापों एवं आर्थिक गतिविधियों को गति देने और प्रदेश में नये औधोगिक निवेश के अवसर पैदा करने हेतु कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 5 और 62 (2) द्वारा प्रदत शक्तियों को प्रयोग में लाते हुए 9 मई 2020 से तीन माह के लिए “किसी भी व्यस्क कर्मकार श्रमिक से एक दिन में 12 घंटे से अधिक और सप्ताह में 72 घंटे से अधिक कार्य नहीं लिया जाएगा. किसी दिन में काम का विस्तार इस तरह निर्धारित होगा की प्रत्येक कर्मकार को 6 घंटे के बाद 30 मिनट का विश्राम अनिवार्य रूप से दिया जाएगा. कोई भी कर्मकार 6 घंटे से अधिक कार्य नहीं करेगा जब तक कि इसे 30 मिनट का विश्राम न दिया गया हो. इसके अनुसार प्रत्येक कर्मकार को अतिकाल कार्य हेतु कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 59 के प्रावधानों अतिकाल अवधि का नियमानुसार भुगतान किया जाएया.
जबकि कारखाना अधिनियम 1948 के पूर्व के प्रावधानों के अनुसार प्रतिदिन काम करने का समय 9 घंटा (विश्राम सहित) और प्रति सप्ताह कार्य के 48 घंटे अधिकतम था.सरकार का दावा है कि कोरोना वायरस महामारी के उत्पन्न आर्थिक संकट के समय कार्य के घंटे बढ़ाने से नियोजक कम श्रमिकों की उपलब्धता में भी अपने कारखानों को चला सकेंगें. इसके साथ ही श्रमिकों को ओवरटाईम के द्वारा अपने आय में बढ़ोतरी करने का अवसर प्राप्त होगा.
परन्तु श्रमिकों के काम करने की अवधि 8 से 12 घंटे करने पर सरकार के दावों को ख़ारिज करते हुए जेवियर प्रबंधन संस्थान, जमशेदपुर के प्रोफ़ेसर केआर. श्यामसुंदर ने बताया कि ‘काम के घंटे को बढ़ाने से मजदूरों की कार्यक्षमता और उत्पादकता नकारात्मक तौर पर प्रभावित होगी. इससे मजदूरों के कामगार के तौर पर जो संतुलन स्थापित है उसपर प्रभाव पड़ेगा. यदि कोई श्रमिक किसी कारखाने में काम और विश्राम के समय मिलाकर 12.30 -13 घंटे बिताता है और 2 घंटे यात्रा में बिताता है तो उसे 14-15 घंटे इसके लिए निकालना होगा.’ इसके अतिरिक्त अगर वह अपने परिजनों के साथ नहीं रहता है तो उसको भोजन की तैयारी करनी होगी. इस तरह का जीवन लंबे समय तक गुजारना किसी श्रमिक की कार्यक्षमता को प्रभावित कर सकती है.
मजदूर-किसान शक्ति संगठन की अरुणा राय का मानना है कि यह एक लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा विश्वासघात है, सरकार जिसे सुधार कह रही है दरअसल वह प्रतिगमन या अधिकारों का अलग होना है क्योंकि सुधार आमतौर पर बेहतर के बदलाब का संकेत माना जाता है, जबकि श्रमिकों के मौलिक अधिकारों का निलंबन एक प्रकार का शोषण है जो श्रम सुधारों की अवहेलना करता है.
एटक (AITUC) की महासचिव अमरजीत सिंह का मानना है कि ‘जब औधोगिक इकाई कह रहे हैं कि एक तिहाई से अधिक श्रमिकों को काम पर नहीं रख पायेंगें तब 8 से 12 घंटे काम करने की बात की जा रही है. जो मजदूर पहले से उपलब्ध है उसको सरकार काम नहीं दे पा रही है तो 12 घंटे काम करने की बात क्यूँ की जा रही है? इस समय सबको रोजगार देने की जरुरत है इसलिए इकाइयों में कामगारों को दो-तीन शिफ्ट लगाना चाहिए, इस परिदृश्य में काम के घंटे को बढ़ाने का क्या तुक है’.
संसद की श्रम मामलों की स्थायी समिति के अध्यक्ष भर्तहरी महताब का मानना है कि ‘एक संतुलन होना चाहिए, श्रमिकों की कीमत पर उद्योगों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है’. ऑल इंडिया किसान सभा के संयुक्त सचिव बादल सरोज ने इसे मजदूरों की अस्मिता पर हमला माना. सीटू के महासचिव तपन कुमार सेन ने श्रम कानूनों में बदलाव न मानकर इसका विलोपन माना.
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने कहा है कि भारत में श्रम कानूनों में हो रहे बदलाव अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप होने चाहिए. इनका कहना है कि सरकार, श्रमिक और नियोक्ता इकाई के साथ त्रिपक्षीय सहमति के बाद ही श्रम कानूनों में किसी तरह का संशोधन किया जाना चाहिए. यह अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के नियमन की भी अवहेलना है.श्रम कानूनों के निलंबन से मजदूरों को मालिकों की दया पर निर्भर रहना होगा. उनके काम के घंटे बढ़ा दिए जायेगें. उनको अपनी बात रखने के अधिकार से भी हाथ धोना होगा और नौकरी से निकालना प्रबंधकों के लिए और आसन होगा. प्रबंधकों पर सरकारी नियंत्रण कमजोर होगा जो मजदूरों के शोषण की अंतहीन दिशा में ढकेल देगा.
इसके साथ श्रम कानूनों के निलंबन से श्रमिकों के शोषण को संस्थागत स्वरूप मिलेगा. इसे ऐसे समझा जा सकता है यदि किसी श्रमिक को 8 घंटे के लिए 240 रुपया मजदूरी मिलती है तो इसका मतलब है कि उसे 30 रुपया प्रति घंटा की दर से मजदूरी मिल रही है. इसके बाद अगर वह 4 घंटे ओवरटाईम करेगा तो उसे नियमानुसार प्रति घंटे का दुगुना भुगतान करना पड़ेगा, अर्थात् प्रति अतिरिक्त घंटे की मजदूरी 60 रुपया होगी. इसके अनुसार उसे ओवरटाईम का 240 रुपया और उसकी दैनिक मजदूरी 240 रुपया अर्थात् कुल मिलाकर कर्मकार के बारह घंटे का कुल मजदूरी 480 रुपया. परंतु, शोषण यंही से शुरू होता है जब मालिक उसे ओवरटाईम का भुगतान नहीं करता और श्रम कानूनों के निलंबन से कोई उसकी कारखाने की जांच नहीं करेगा. इससे मालिक का अधिकतम लाभ होगा और मजदूरों का अधिकतम नुकसान. इसके साथ कम मजदूरों से अधिकतम काम लिया जा सकेगा.
2015 में मैनुअल इंस्पेक्शन को रोककर ऑनलाइन इंस्पेक्शन की व्यवस्था को गई,जिसमे डाटा फीड नहीं होने के कारण मात्रा एक दो महीने ही यह प्रक्रिया चली और पिछले 6 वर्षों से इंस्पेक्शन लगभग बंद ही है. इस प्रकार संसद और विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों को मात्रा कार्यपालक आदेश की चतुराई से कुंद कर दिया गया है. यह कभी ऑनलाइन इंस्पेक्शन के भ्रम से तो कभी लेबर कोड के नाम पर तो कभी कोराना के नाम पर 2014 से आरंभ की गई प्रक्रिया में श्रमिक हितों के विरूद्ध तीव्रता लाई जा रही है.सरकार ने इसके अतिरिक्त औधोगिक विवाद अधिनियम 1947, ठेका मजदूर अधिनियम 1970, औधोगिक नियोजन (स्थायी आदेश) नियम, 1947 और कारखाना अधिनियम 1948 में “कारखाना” के परिभाषा में संशोधन प्रस्तावित है.
दूसरी तरफ बिहार सरकार पचास लाख श्रमिकों को रोजगार देने की तैयारी कर रही है. सरकार को अनुमान है की लगभग पच्चीस लाख प्रवासी श्रमिक बिहार वापिस आ सकते हैं जिनके लिए दीर्घकालीन रोजगार देने की तैयारी हेतु सभी जिलों में अध्ययन शुरू किया जा चुका है. सरकार ने अभी मनरेगा, नल-जल योजना, नाली-गली पक्कीकरण, सड़क निर्माण और जल-जीवन हरियाली में श्रमिकों को काम दे रही है. नयी योजनायों को शुरू करने की तैयारी चल रही है जिसमें निर्माण इकाइयों को प्रमुखता दी जाएगी. उद्योग से स्थायी रोजगार में मदद मिलेगी.
एक तरफ कोरोना काल में श्रमिकों को कानून की सुरक्षा से बाहर किया जा रहा है और श्रम सुधारों पर कुठाराघात किया जा रहा है. दूसरी तरफ पचास लाख श्रामिकों को रोजगार देने का वादा किया जा रहा है. अब देखना है की बिहार सरकार इस आपदा को अवसर में बदलती है या आपदा को महाविपदा में बदलती है. क्योंकि जब आगामी विधानसभा चुनाव होगी तो प्रवासी श्रमिक की नाराजगी सरकार हेतु परेशानी का सबब बन सकती है.
मुकेश कुमार
(लेखक पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में मीडिया के पीएचडी स्कॉलर हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं)