Bihar Assembly Election 2020 : आख़िर बिहार को प्लुरल्स क्यों होना चाहिए? 

सवाल यह है कि बिहार के राजनीतिक पटल पर प्लुरल्स क्यों आवश्यक है? प्लुरल्स की प्राथमिकता प्रोग्रेस (विकास) सभी के लिए है. प्लुरल्स प्रोग्रेसिव बिहार के लिए जरूरी है. प्लुरल्स सकारात्मक राजनीति की एक नई दुस्साहसी उड़ान की शुरुआत है. बिहार सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर बहुत नीचे आता है, अब इसे बदलने का वक़्त है. और, फिर इस बात का कोई सबूत भी तो नहीं है कि यह नहीं बदला जा सकता है, उल्टे इस बात का सबूत तो है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के नेतृत्व से नहीं बदला जा सकता है. अगर बदलना होता तो बदल दिया जाता. अब वक़्त है सकारात्मक राजनीति की अब जरूरत है प्लुरल्स की.

प्लुरल्स महज़ एक राजनीतिक दल नहीं है बल्कि एक राजनीतिक क्रांति है जो इस विचार पर आधारित है कि हर एक ज़िंदगी क़ीमती है और इसे अपने आप में एक अंत की तरह देखा जाना चाहिए न कि महज़ एक साधन मात्र के रूप में. विविधता हमारी ताक़त है और प्रगति तभी सम्भव है जब सब का शासन हो. दशकों तक चली आज़ादी की लड़ाई के पीछे भी यही सोच थी जिसे हमने आख़िरकार उस समय जीत ही लिया. दुर्भाग्यवश, समय के साथ-साथ हम ‘अपने लोगों’ से शासित होने मात्र से ही संतुष्ट होकर थोड़े ढीले पड़ गए. निस्सन्देह, हमारे रंग समान हैं, या हम समान भाषा बोलते हैं, या हमारी तथाकथित ‘पहचान’ एक है, लेकिन क्या सच में ये हमारे ‘अपने लोग’ हैं? यह अतार्किक होगा कि हम उन सत्तानशीनों के साथ ख़ुद को जुड़ा हुआ पाएँ जिनमें शासन करने के सबसे बुनियादी गुण अर्थात ‘सहानुभूति’ तक का अभाव हो.

विगत वर्षों में बिहार की बहुसंख्यक आबादी के लिए प्रगति कर पाना कठिन हो गया है. सरकार सिर्फ़ उन लोगों की सुनती है जिनके ऊँचे सत्ताधारी लोगों से सम्पर्क हैं. राज्य के बाक़ी लोग पीछे छूट गए हैं. जीवन की गुणवत्ता अत्यंत दयनीय है और एक आम आदमी की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है. बड़ी संख्या में लोग मरते हैं, लापता हो जाते हैं, मार दिए जाते हैं या उनके साथ बलात्कार होता है, लेकिन वो समाचार की सुर्ख़ियाँ नहीं बन पाते. और अगर वो समाचार में आ भी जाते हैं तो सरकार अनसुना कर देती है. हाँ, सरकार परवाह करती है जब कुछ बड़ा बाहर आ जाता है. स्पष्ट है कि यह सोचना ख़ुद को गुमराह करना है कि यहाँ हम ‘सभी का शासन’ है और इसलिए सही मायनों में हम सच्ची आज़ादी से बहुत दूर हैं.

पूरी दुनियाँ काफ़ी तेज़ी से प्रगति कर रही है लेकिन बिहार दुनियाँ का सबसे पिछड़ा क्षेत्र बना हुआ है. हम अभी भी देश में भी सबसे निचले रैंक पर हैं. बात सिर्फ़ रैंक की नहीं है, महत्वपूर्ण है कि यह रैंक क्या बताता है. ग़रीबी, कुपोषण, निरक्षरता, बेरोज़गारी, और ऐसे सभी विकास के मापदंड जहाँ तुरंत पॉलिसी एक्शन की ज़रूरत है. ये मापदंड हर दिन बिहार में मौत की संख्या बढा रहे हैं.

आज़ादी के 73 सालों के बाद भी हम लगभग हर साल बाढ़ के कारण विस्थापित होते हैं, जिसे सरकार ने अन्य समस्याओं की तरह ही लाईलाज घोषित कर दिया है. ‘इसे रोका नहीं जा सकता और ये तो होता ही है’, आपदाओं में ऐसे सरकार के स्टैंडर्ड जवाब होते हैं (यदि वे जवाब देने की परवाह करें तो). यहाँ पब्लिक को ग़लत सूचना देकर अपनी नालायकी को छुपाना एक सामान्य सी बात है. सच्चाई क्या है? असली विकास सरकार के एजेंडा में कभी रहा ही नहीं है. आज़ादी के बाद सरकार राज्य की राजधानी तक में एक ड्रेनेज सिस्टम या बुनियादी इंफ़्रास्ट्रक्चर तक नहीं बना पाई, पूरे राज्य की तो बात ही छोड़ दें. मानव सभ्यता ने सी-लिंक, भूकम्परोधी बिल्डिंग और अंडर-सी ट्रेन तक बना लिए हैं और अब चंद्रमा तक जा रहे हैं. अगर 2020 में भी आपको लगता है कि पिछड़ापन ही वास्तविकता है तो मान लीजिए कि वे आपके साथ खेलने में जीत गए हैं. हम बेहतर के लायक़ हैं, और विश्वास कीजिए बेहतरी सम्भव है.
2020 में हमें एक विकल्प चुनना है – प्लुरल्स के साथ आगे बढ़ें और एक प्रगतिशील बिहार का निर्माण करें, या पिछड़े बने रहकर यथास्थिति बनाए रखें जिसमें सिर्फ़ अक्षम राजनेता और अपराधी ही मज़बूत होते रहेंगे. यह चुनाव हमें करना है. यही सच है और बहुत महत्वपूर्ण है.
क्या कारण बहुत स्पष्ट नहीं है? हम सबसे विकसित होने की सम्भावनाओं के बावजूद विश्व के सबसे पिछड़े प्रदेशों में एक हैं.

बिहार में राजनीति की बात करना आपको बहुत मुश्किल में डाल सकती है. लेकिन अगर आप यह नहीं करेंगे तो यह राजनीति बाक़ी सबों को समस्याग्रस्त बनाए रखेगी. अभिजात्य राजनीतिक वर्ग अपने फ़ायदे के लिए यथास्थिति बनाए रखने में सफल रहा है. राजनीति आज वैसी सभी चीज़ों का प्रतिनिधित्व करती है जिनसे एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति दूर रहना चाहेगा, और प्लुरल्स कोई अपवाद नहीं है. लेकिन यह वह राजनीति नहीं है जैसा इसे होना था. राजनीति भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़ और धोखाधड़ी का कोई पर्याय नहीं है बल्कि सैद्धांतिक रूप से इसका मतलब सक्षम तरीक़े से उपलब्ध संसाधनों का पुनर्वितरण है. राजनेताओं ने हमारी राजनीति की समझ को इतना तोड़-मरोड़ दिया है कि यह विश्वास करना असम्भव हो गया है कि इससे कुछ भला हो सकता है या समाज के लिए बोलने वाले किसी व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है – ‘यह हो ही नहीं सकता और ज़रूर इसका कुछ निहित स्वार्थ है’. नहीं? यह सच है कि राजनेताओं पर विश्वास न करने के लिए हमें गुनहगार नहीं माना जा सकता क्योंकि स्वतंत्रता के बाद उन सबों ने हमें असफल ही साबित किया है. लेकिन हम पर हाशिए पर बने रहने और सिर्फ़ अपने ड्रॉइंग रूम में या हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर राजनीति की सिर्फ़ बातें करते रहने का इल्ज़ाम ज़रूर है. हममें से ज़्यादातर तो वोट भी नहीं करते. जब हम लोग बड़े हो रहे हो रहे थे तो हमें वोट करने के बारे में सिखाने की ज़रूरत नहीं समझी गई क्योंकि यह कोई प्राथमिकता नहीं थी. और यही कारण है कि नेता लोग हमसे जीतते रहे हैं. हम पीड़ित लोगों से सहानुभूति रखते हैं और सोचते हैं कि हमें वैसी स्थिति में न जीना पड़े. लेकिन सही मायनों में हम वैसी स्थिति में हमेशा बने हुए हैं. हमारी मानसिक बनावट ऐसी हो गई है कि हम नज़र चुराते हैं, या मान चुके हैं कि चीज़ें ऐसी ही रहेंगी या कि हम इसके लिए कुछ नहीं कर सकते. आज जब यह लेख लिखा जा रहा है तो बिहार में बाढ़ और कोरोना की समस्या विकराल है. कई लोगों की जानें भी गई. हम सिर्फ़ प्रकृति की कृपा पर ही बचे हुए हैं न कि सरकार के प्रयासों से.

बिहार हर साल बाढ़ में डूबता है. आज जो हम भुगत रहे हैं, कोसी क्षेत्र के हमारे भाई-बहन साल-दर-साल वो झेलते रहे हैं. अगर बिहार के कम पीड़ित जिलों के हम निवासियों ने सरकार को तब से प्रश्न किया होता तो शायद आज हमें यह नहीं देखना पड़ता. साफ़ है कि हम तभी तक सुरक्षित हैं जब तक हमारी बारी नहीं आ जाती. हमारी वर्तमान सरकार और ‘हम जनता’ दोनों के पास पंद्रह साल थे इसके बारे में कुछ करने के लिए. यह एक लम्बा समय था जिसमें कुछ हो न सका. लेकिन अब अपने भविष्य और भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा करना नैतिक रूप से अनिवार्य हो गया है. प्लुरल्स बिहार को अपने जीवन-काल में ही विकसित देखना चाहता है और बिहार के लिए देश में वो सम्मान दिलाना चाहता है जिसका वो हक़दार है.

पूरी दुनिया कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है. पॉलिसी के निर्माण के लिए विभिन्न विषयों की योग्यता एक अहम भूमिका रखती है ताकि पॉलिसी साक्ष्य और गहन विश्लेषण पर आधारित हो. दुनिया भर की सरकारें पॉलिसी के असर को उसे लागू करने से पहले और बाद में गहनता से अध्ययन करती हैं क्योंकि पब्लिक और पब्लिक के पैसे दोनों का बहुत महत्व है और इसलिए दूसरी जगहों पर पब्लिक भी यह सुनिश्चित करती है कि सरकारें ऐसा करें. पुनर्वितरण (रीडिस्ट्रिब्यूशन) किसी भी पब्लिक पॉलिसी के केंद्र में होती है. बिहार की मुख्य समस्या फ़ंड की नहीं है बल्कि फ़ंड के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और अपने लोगों को ख़ुश करने की रही है. हमारे पास सक्षम संस्थाओं तथा आधारभूत संरचनाओं का अभाव रहा है और निर्णय राजनीतिक वर्ग की मनमर्ज़ी से किए जाते हैं. उदाहरण के लिए, वर्तमान सरकार एक दिन जगी और उसने म्यूज़ीयम बनाने की सोची और बना भी डाला।.वह पैसा जिसे तत्काल किफ़ायती आवास, प्राथमिक शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं या कृषि आधारित उद्योगों के लिए उपयोग किया जा सकता था, उसे एक बिल्डिंग बनाने के लिए ख़र्च किया और ऐसा करके भी सरकार बच निकलती है क्योंकि वास्तव में कोई उनके कार्यकलाप पर पूछने वाला ही नहीं है. यह बात रोचक है कि बिहार का राजनीतिक वर्ग बिना मुद्दों की बारीकी समझे या उन्हें सुलझाने की समझ रखे ग़रीबी, न्याय, सुशासन और विकास जैसे शब्दों को अपने भाषणों में उछालता रहा है. पुराने राजनेताओं के कारण विकास का हमारा मापदंड इतना कम रहा है कि सरकार अगर नहीं के बराबर भी कुछ करती है, तो हमने ख़ुश रहना सीख लिया है. हमने वर्तमान सरकार को प्रश्न करना बंद कर दिया है और ख़ुद को किसी तरह समझा लिया है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.

बिहार की वर्तमान दशा को कोई अनजान या असहाय व्यक्ति ही बर्दाश्त कर सकता है. आप जहाँ भी क़दम रखें वहाँ अराजकता ही है. मंत्री और राजनेता न सिर्फ़ अक्षम हैं बल्कि नैतिक रूप से भ्रष्ट भी हैं. मुज़फ़्फ़रपुर में सैकड़ों बच्चों की मृत्यु और बिहार की विनाशकारी बाढ़ के बाद भी सरकार में इतना दुस्साहस था कि उन्होंने इस नारे के साथ राजनीतिक अभियान शुरू किया कि “ठीके है” (सब कुछ बढ़िया है). यह अस्वीकार्य दुस्साहस इस मज़बूत विश्वास से आता है कि अधिकतर पीड़ित लोगों के पास बोलने के लिए मंच नहीं है या जो लोग सरकार को प्रश्न कर सकते हैं उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है – वे वोट ही नहीं करेंगे और चुनाव लड़ने का तो सवाल ही नहीं है. सच में, वे ग़लत भी तो नहीं सोच रहे न! वैसे अधिकतर लोग जिन्हें जब पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया जाता है और जिनके पास बोलने का कोई मंच नहीं होता, दूसरे लोग इससे मुँह चुरा लेते हैं. और इसी लिए यह इस ‘क्यों’ का जवाब है कि अब समय आ गया है कि घमंड और अन्याय को पराजित करने के लिए अनसुनी आवाज़ का प्रतिनिधित्व हो.

हम नाराज़ होते हैं जब हमारे अपने देशवासी हमें हमारे नेताओं के कारण एक ख़ास खाँचे में रख कर देखते हैं. हमारी प्रायः यह प्रतिक्रिया होती है कि कोई बिहार की परवाह नहीं करता. लेकिन बिहार हमारी भी तो ज़िम्मेदारी है. हम विकास की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं जब हम इसकी माँग न करें. और कोई बिहार की परवाह क्यों करे जब हमें न हो. अब समय आ गया है कि हम आत्मनिर्भर प्रगतिशील राज्य बनने की बागडोर अपने हाथों में लें, सिर्फ़ राजनीतिक नारे के लिए नहीं बल्कि सच्चाई में. प्लुरल (अनेकांत) बनने के लिए पहला क़दम है स्वशासन की माँग करना. बिहार अपराधियों, नालायक़ नेताओं या मुट्ठी भर समृद्ध लोगों के राजनीतिक वर्ग की जागीर नहीं है. यह हमारा भी है, हम टैक्स दाता जो उस राजनीतिक वर्ग के मालिक हैं. वे और उनकी बंगलों, गाड़ियों और बॉडीगार्डों वाली विलासी ज़िंदगी हमारी वजह से है. हमने अपना धन राजनीतिक वर्ग को हमारे लिए काम करने के लिए दिया है, इसलिए अब समय आ गया है कि वे अपनी नालायकी के लिए स्पष्टीकरण दें.

बिहार के पास विश्व की सबसे उपजाऊ भूमि है, एक नौजवान मेहनती कार्यबल है और इसलिए एक सही पब्लिक पॉलिसी के साथ यह पिछड़ेपन को आसानी से पराजित कर सकता है. तब यह अभी तक क्यों नहीं हो पाया? तब क्यों यह कार्यबल अभी भी रोज़गार की तलाश में है या अशोभनीय वेतन पर खटने के लिए विवश है? हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया है कि बदलाव का पहला क़दम है – यथास्थितिवाद को चुनौती देना. यही वह विचारधारा है जिसका प्लुरल (अनेकांत) प्रतिनिधित्व करता है. अब वह समय है कि हम, प्लुरल की आर्मी, एक मज़बूत, सक्षम विपक्ष बन कर सरकार को प्रश्न करें और प्रगति की माँग करें. इस तेज़ी से बदलते विश्व में हम वहीं नहीं रूक रह सकते जहाँ हम अभी ठहरे हुए हैं. हमने शुरुआत कर दी है. और आप या तो प्लुरल हैं या अपने भविष्य के विरूद्ध हैं. तीसरा कोई विकल्प नहीं है.
हम में से कुछ अक्सर कहते हैं ” कृपया, मुझे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है.” दुर्भाग्यवश, हम जितना अनुमान लगाते हैं राजनीति में उससे कंही अधिक ताकत है. यह हमें बर्बाद भी कर सकती है या हमारे लिए एक बेहतरीन भविष्य भी बना सकती है. यह मानना बचपना होगा अगर हम समझें कि हमारे पास राजनीति में रुचि न रखने का भी कोई विकल्प है. राजनीति नीति का निर्माण है, अवसरों तक पहुंचने का एक रास्ता है. एक अच्छी नीति का मतलब एक अच्छा भविष्य है. राजनीति को नियंत्रित करने में रुचि लें, वरना यह आपको नियंत्रित करती रहेगी.

इसी बिहार ने राजकुमार सिद्दार्थ को गौतम बुद्ब बनाया था, इसी बिहार की धरती ने मोहनदास गांधी को महात्मा बनाया था, इसी धरती ने जयप्रकाश नारायण को लोकनायक बनाया था. आज बिहार उस मोड़ खड़ा है जंहा बिहारियों को प्लुरल्स के साथ खड़ा होकर विकसित बिहार के सपने को साकार करना होगा ताकि इतिहास इस परिवर्तन को बिहारी समाज के के विजय के रूप में दर्ज कर सके.
प्लुरल्स उनके लिए है जो बिहार से प्रेम करते हैं.

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