सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 2008 के हत्या के एक मामले में आरोपी को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष के लिए यह आवश्यक है कि चश्मदीद की अनुपस्थिति में वह अपराध की मंशा साबित करे।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्ला की पीठ ने रेखांकित किया कि मामले के सभी गवाहों ने बताया है कि याचिकाकर्ता और मृतक के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी।
पीठ ने कहा, ‘अगर मामले में कोई गवाह नहीं है तो अभियोजन पक्ष (prosecution) को अपराध की मंशा साबित करनी होगी। प्रत्यक्ष मामले में मंशा की अहम भूमिका नहीं होती।’’
उन्होंने कहा, ‘अगर मंशा स्थापित नहीं की गई हो या साबित नहीं की गई हो और सीधे प्रत्यक्षदर्शी हो तो मंशा अपना महत्व खो सकती है लेकिन मौजूदा मामले में यह स्थापित हुआ है कि किसी ने अपराध को होते हुए नहीं देखा। ऐसे में मंशा की अहम भूमिका है।’
शीर्ष अदालत एक व्यक्ति की अपील पर सुनवाई कर रही थी जिसने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने उसे हत्या का दोषी करार देने और उम्र कैद की सजा देने के निचली अदालत के फैसले की पुष्टि की थी।
अभियोजन पक्ष के मुताबिक मृतक के रिश्तेदार ने शिकायत की थी कि जब उनका भतीजा घर लौट रहा था तब अपीलकर्ता ने उसकी पिटाई की थी।
शिकायतकर्ता ने दावा किया कि जब वह घटनास्थल पर पहुंचे तो देखा कि आरोपी मौके से भाग रहा है और हत्या में प्रयुक्त हथियार वहां पड़ा हुआ है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मृतक के रिश्तेदार का बयान भरोसे लायक नहीं है और उसके आधार पर दोषी करार देने का फैसला नहीं किया जा सकता।