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सरकार अपने नागरिकों की बिल्कुल परवाह नहीं करती फिर सरकार ही क्यों है? पुष्पम प्रिया चौधरी ने सरकार पर लगाया प्रश्नचिन्ह !

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प्लुरल्स पार्टी की प्रेसिडेंट पुष्पम प्रिया चौधरी ने सरकार के अस्तित्व को लेकर सवाल खड़ा किया है कि यदि राज्य के नागरिक उनकी प्राथमिकताओं में नहीं हैं तो ऐसे सरकार के बने रहने का क्या अर्थ रह जाता है? अपने फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा है कि “बिहार में हेल्थ केयर पॉलिसी और उसका कार्यान्वयन दुनियाँ में सबसे ख़राब है. स्वास्थ्य सेवाओं की दशा भयानक है, गम्भीर बीमारियों के लिए कोई वास्तविक हेल्थ इंश्योरेंस जैसी चीज नहीं है, डॉक्टरों की भारी कमी है, ज़मीनी बुनियादी स्वास्थ्य केंद्र मृतप्राय हैं, अस्पतालों में फ़्री दवाईयाँ नहीं हैं, और बिचौलियों का ज़ोरदार कारोबार है. और ऐसी अनेक चीजें जो कैबिनेट के एक ज़िम्मेदार हस्ताक्षर और पॉलिसी बदलाव से आसानी से ठीक हो सकती हैं!” पर बिहार में यह लुप्तप्रायः हैं.

सरकार के लिए उनके नागरिक बस लोग मात्र है “और सरकार बिल्कुल परवाह नहीं करती फिर हमारे पास सरकार ही क्यों है.”
उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा था कि सरकारी लॉकडाउन की वजह से बिहार यात्रा बीच में स्थगित करनी पड़ी है और अगले 15 दिन जोर स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा बूथ-स्तरीय संगठन और प्रचार-प्रसार पर होगा और इधर वे बिहार के बंधनों, मिथकों और अवसरों को दूसरे औज़ारों से खोलते और तोड़ते रहेंगी. इसी के तहत पालीगंज यात्रा की एक घटना पर लिखा है जिसमें उन्होंने बताया कि राज्य अपने नागरिकों को नीतियों में कितना स्थान और कैसा सम्मान देती है.
पुष्पम प्रिया चौधरी ने लिखा “मैं सुनीता देवी से पालीगंज, पटना में मिली. हालाँकि मैं उन्हें अचानक किसी और के घर पर मिल गई, लेकिन वे मुझे देखकर काफ़ी उत्साहित दिखीं और हमारी टीम के एक सदस्य से उनके हाथ में रखे कागज के बारे में पूछा. जब उन्हें पता चला कि वह प्लुरल्स मेम्बरशिप फ़ॉर्म था, तो उन्होंने भी मेम्बर बनने में दिलचस्पी दिखाई. टीम के किसी सदस्य ने उन्हें एक भरा हुआ फ़ॉर्म दे दिया और कहा कि फ़ोटो ले सकते हैं. मैंने यह सुना तो कहा, “नहीं, उन्हें फ़ॉर्म भरने दीजिए, हमलोग इंतजार करेंगे.” और तब मैंने सुनीता जी की आवाज़ सुनी – “हाँ, मैं अपना फ़ॉर्म भरूँगी.” तेज आवाज़! मुझे पसंद है जब महिलाएँ तेज आवाज़ में बोलती हैं, वह भी बिहार में! मैंने सुनीता जी को कहा – “हाँ, डाँटिए जोर से, ये क्या बात हुई, सरकारी काम जैसा!
जब मैं बाहर निकली तो सुनीता जी मेरा इंतज़ार कर रही थीं और पूछ रही थीं कि क्या वे मुझसे बात कर सकती हैं! मैं देख सकती थी कि वे मुझे देखकर ख़ुश थीं. उन्होंने संकोच से पूछा – “क्या आप मेरे घर चलेंगे? बग़ल में ही है, मुझे बहुत अच्छा लगेगा.” कहने की ज़रूरत नहीं कि अगले ही पल मैं उनके साथ उनके घर जा रही थी. वह एक कमरे का घर था. जब मैं अंदर गई तो उन्होंने कहा – “जो है यही छोटा सा घर है मेरे पास.” रास्ते में बड़े गर्व के साथ उन्होंने मुझसे कहा था कि वे मुख्यमंत्री के लिए काम करती हैं. मैंने मुस्कुरा कर कहा था – “सच में?” उन्होंने कहा – “हाँ, मैं जीविका में काम करती हूँ.” मैंने उनको कहा कि मुझे पसंद है कि वे कितनी बोल्ड हैं और बिहार में मैं हमेशा उनकी जैसी बोल्ड महिलाओं को ढूँढती हूँ. उन्होंने तब ख़ुश होकर कहा कि वे ऐसी कई महिलाओं को जानती हैं और जब अगली बार आइएगा तो सब से मिलवाऊँगी.
उनका लड़का जो स्कूल में पढ़ता है, सो रहा था. मैंने कहा कि उसे डिस्टर्ब न करें. वे सच में बहुत ख़ुश थीं और उन्हें शायद पता नहीं था कि मैं भी बहुत ख़ुश थी. तब वे अपने पति के बारे में बताने लगीं, जो बाहर थे और हमारे आने पर घर आए थे – “मेरे पति को गम्भीर बीमारी है, इसलिए वे काम नहीं कर सकते. मैं ही एकमात्र कमाने वाली हूँ, जो भी थोड़े पैसे मिलते हैं, सब दवाई में खर्च हो जाते हैं.” थोड़े देर में जब मैं निकलने वाली थी, उन्होंने मेरी तरफ़ देखा और कहा – “मेरी ज़िंदगी बहुत कठिन है…..” और इतना कहते ही उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, जो शायद बहुत देर से उन्होंने रोक कर रखा था. वही मेरी तेज स्त्री….इतनी बहादुर! उस मज़बूत आवरण और गर्मजोशी वाली मुस्कान के पीछे का दर्द मैं देख सकती थी, महसूस कर सकती थी. मेरा दिल टूट गया. उन्होंने कोई शिकायत नहीं की, उनकी कोई अपेक्षा नहीं थी, कुछ नहीं माँगा….वे खुश ही दिखना चाहती रहीं, लेकिन बहुत सारा दुःख लिए हुए!
इस राज्य के मुख्यमंत्री बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि बिहार में लोग बहुत सीधे हैं. सुनीता जी ने उनके विरूद्ध एक शब्द नहीं कहा. उनको शायद पता नहीं था कि अगर सही मायनों में एक अच्छी सरकार होती तो उनकी ज़िंदगी इतनी मुश्किल नहीं होती. लोग लम्बे समय से एक सक्षम सरकार से इतना वंचित रहे हैं कि उन्होंने अपनी परिस्थिति के साथ जीना सीख लिया है और संघर्ष को अपने जीवन का एक हिस्सा मान लिया है.
सरकार के लिए सुनीता जी बस ‘एक लोग’ हैं. लेकिन उनकी समस्या का बिहार में ‘अनेक लोगों’ के द्वारा समान रूप से सामना किया जाता है. और सरकार बिल्कुल परवाह नहीं करती. फिर हमारे पास सरकार ही क्यों है? मैं निश्चित नहीं हूँ कि सुनीता जी को पता है कि जब भी वे अपने मोड़ की दुकान से कुछ ख़रीदती हैं तो वे अपने मुख्यमंत्री और उनके प्रतिनिधियों और देश के नौकरशाहों के वेतन में अपना हिस्सा दे रही होती हैं. आप जितने लोगों से मिलेंगे, उनमें सुनीता जी सबसे सीधी और श्रेष्ठ लोगों में एक होंगी, और वे एक बेहतर जीवन की हक़दार हैं. जब भी मैं उनके बारे में सोचती हूँ मुझे उनके चेहरे की बड़ी-सी मुस्कुराहट और उसके पीछे का दुःख एक साथ दिखता है. सुनीता जी, आप अदम्य साहस और खूबसूरत दिल वाली एक बहादुर स्त्री हैं. प्लीज़ अपनी उम्मीदों को ज़िंदा रखिएगा, चीजें बहुत जल्दी बदलने वाली हैं.
उन्होंने अज्ञेय की रचना “नदी के द्वीप” के कुछ अंश से अपने नोट का समापन किया है.
“दुःख सब को माँजता है
और –
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने , किन्तु-
जिन को माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें.”

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